11 जुलाई 2016

तुमने बेचैन होके...









रचनाकार : डॉ. गायत्री गुप्ता ‘गुंजन’

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तुमने बेचैन होके इस कदर पुकारा मुझको।
साहिल पे छोड़ गई मझधार की धारा मुझको॥

कैसे देगा कोई इस भँवर में सहारा मुझको।
जबकि अपना ही ग़म अब तो है प्यारा मुझको॥

उसको दुनिया की सारी रस्में जो निभानी थीं।
अक्श़ ही छोड़ गया मेरा बेसहारा मुझको॥

मुझे इस दुनिया के हर झूठ से डर लगता है।
क्योंकि कड़वा ही सही सच ही है प्यारा मुझको॥

बेताल्लुक तुझसे करे और किसी के दिल में पले।
कोई एहसास नहीं अब है गवारा मुझको॥


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10 जून 2016

बन्नी / विवाह-गीत (लोक-गीत)










गौरा-पार्वती के आगे, शंकर-पार्वती के आगे
अपना भाग माँगन जैहें
हाँ... सुहाग माँगन जैहें.....


बाबा ऐसो वर ढूँढ़ो, मैया ऐसो वर ढूँढ़ो
जिनके हों लक्ष्मण से भाई, जिनकी कौशल्या सी माई
अपना भाग.....


बाबा ऐसो वर ढूँढ़ो, मैया ऐसो वर ढूँढ़ो
जिनके हों बलदाऊ से भाई, जिनकी हों जसुमति सी माई
अपना भाग.....




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28 मार्च 2016

आदिम सभ्यताओं से गुजरते हुये!










आदिम सभ्यताओं से गुजरते हुये
अहसासों को जगह-२ महकते देखा..


सभ्यताएँ वहाँ वस्त्रों की ओट में सिसकते हुये
दम नहीं तोड़तीं
बल्कि नग्न सौन्दर्य से उठती
सलीके की मादक गन्ध में
मदमस्त हो नृत्य करती हैं..


भावनाओं को बहने के लिए
शब्दों के पुल की आवश्यकता नहीं होती
वे तो एक-दूजे के गले लग कर
मौन से मौन को सम्प्रेषित होती हैं..


विकासशील सभ्यतायें पाती कम खोती अधिक हैं
और पीछे छोड़ती जाती हैं
कच्ची पगडंडियों पर गहरे धँसे हुये
कभी ना लौटने वाले
पैरों के निशान...



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25 फ़रवरी 2016

‘रूमी’ की कविताएँ (१)









कविताएँ : रूमी
अनुवाद : डॉ. गायत्री गुप्ता ‘गुंजन’


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कोई ये ना सोचे कि हम बुरी तरह टूट चुके हैं;

कि हममें दरारें पड़ चुकी हैं

हम तो केवल अपनी पत्तियाँ गिरा रहे हैं,

आने वाले वसन्त के लिए...



* * *



‘बुरा वक़्त’ सामने से आकर डराता है;

पर इसे गुज़र ही जाना है, क्योंकि

हर निराशा से कोई ‘आशा’ झाँकती है।

हर अँधेरे को कोई ‘सूरज’ ढूँढ़ता है।



* * *



आधी ज़िन्दगी तुमने दूसरों को लुभाने में गुज़ार दी;

आधी उनके द्वारा निर्मित भ्रम में गुज़र जाएगी;


छोड़ दो अब बहकना, यह खेल तुम बहुत खेल चुके...



* * *



‘क्रोध’ एक तूफ़ान की तरह है..

जो कुछ देर बाद शान्त हो ही जाता है..


परन्तु तब तक बहुत सी शाखाएँ टूट चुकी होती हैं।



* * *



दु:ख मत करो!

जो भी तुमने खोया है,

किसी और रूप में लौट आयेगा...



* * *



मेरे लिए दुनिया में एक सहज मुस्कान से अधिक कीमती कुछ भी नहीं;

ख़ासकर जब वो मुस्कान एक बच्चे की हो...

             



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15 फ़रवरी 2016

‘तेरे-मेरे दरमियां’ .. (निज़ार कब्बानी)








‘तेरे-मेरे दरमियां’ : निज़ार कब्बानी
अनुवाद : डॉ. गायत्री गुप्ता ‘गुंजन’


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तेरे-मेरे दरमियां
साल दर साल पिघलते रहे
और होंठ थरथराते रहे, लरज़ते रहे
अपनी-अपनी जुम्बिशों के बीच..
किन्तु जब वे मिले
तो शताब्दियाँ ठहर गईं
और ज़िन्दगी काँच की तरह झरती रही
लम्हा-लम्हा...


* * *


तुम्हें पाया, तो कुछ पाने की ललक शेष ना रही
मेरी रूह ने तुम्हारे होने का पता दिया
तुमसे मिलने से पहले ही तुम्हारे प्यार में भीग चुका था मैं
तुम्हारे स्पर्श से पहले ही तुम्हारी धड़कनों का गुमां होने लगा था
तुम्हारे आगोश में आने से पहले ही तुम्हारी जुल्फ़ों में गुम हो चुका था मैं...


* * *


तुम्हारे-मेरे करने को अब बचा क्या है?
जब प्यार ने कलेजे को चीर ही दिया है, तो
धँस जाने दो इसे और गहरे...


* * *


तुम्हारी आँखों की कोर जादुई हैं
जो मुझे धीरे-धीरे कस रही हैं
मेरे सफ़हे मिटाती हुई
मेरी यादें गलाती हुई...


* * *


ये प्यार ही तो है
जिसमें हम खुद को सौंप देते हैं
जज़्ब हो जाने के लिए, फ़ना हो जाने की हद तक;
कैसा विरोधाभास है ना? कि..
विरह सुख देता है हमें और
मिलन की आँच तपाती है;
और हम हैं कि प्यार में ही जिये जाते हैं
रेज़ा-रेज़ा सुलगते हुये...


* * *


तुम तो वो हो, जिसके मधुर लहजे से
बारिशें शीतलता और मदहोशी उधार लेती हैं;
जिसके सजदे से उठने में
दिन के उगने सी कैफ़ियत बावस्ता हो, और
जिससे रौशन ये ज़िन्दगी का कारवां हो...


* * *


मैं जानता हूँ, जब मैंने पहली बार तुम्हारे समक्ष अपना प्यार उड़ेला था
तुम इसे छूना नहीं चाहती थीं, क्योंकि
तुम एक बार इसकी पीड़ा से गुजर चुकी थीं
पर मैं निराश नहीं था, क्योंकि मैं जानता था
कि तुम एक दिन मेरे लम्बे इन्तज़ार को भर दोगी
अपने अन्तहीन प्यार से...


* * *


जब ईश्वर ने ‘तुम्हें’ मुझे सौंपा
तो मुझे लगा कि मैंने वो सब पा लिया है, जो
उसकी अनगिनत पवित्र पुस्तकों में अनकहा रह गया था...


* * *


तुम कौन हो? ऐ स्त्री!
कटार की तरह मुझे अन्दर तक बींधती हुई
सौम्यता और सरलता की प्रतिमूर्ति
मोगरे की खुशबू से नहाई हुई..
तुम्हारी अल्हड़ता ही अनकही है, या
मैं शब्दहीन हो गया हूँ...?


* * *


तुम्हारे प्यार ने मुझे आश्चर्य के संसार में ला पटका है
इसने मुझे इस तरह अपने आगोश में जकड़ लिया है, कि
तुम्हारे अलावा सब भूलने लगा हूँ मैं
मेरे कानों में तुम्हारा ही नाम गूँजता है
चारों ओर तुम ही तुम नज़र आती हो मुझे
तुम्हारा प्यार एक जंगली पक्षी की तरह टूट पड़ा है मुझ पर
जिसे कुछ भी दिखाई और सुनाई नहीं देता
इसके पंख उलझ गये हैं मुझमें
इसकी चीखें मुझे कचोटती हैं...


* * *


ऐसा लगता है, जैसे मैं दिनों के इन्तज़ार में
दिनों को ही भूल गया हूँ;
बस,
तुम्हारे साथ ‘तुम’ होकर
गुज़र रहा हूँ मैं...


* * *


मेरी घड़ी तुम्हारा चेहरा दिखाती है
सबकी कलाइयाँ भी तुम्हारा ही पता देती हैं
सप्ताह, महीनों, वर्षों में भी
तुम ही गुज़र रही हो
मेरा वक्त कहीं नहीं गया
ये बस तुममें कहीं विलीन हो गया है...!!




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5 फ़रवरी 2016

‘पथिक’ .. (स्टीफ़न क्रेन)







‘पथिक’ : स्टीफ़न क्रेन
अनुवाद : डॉ. गायत्री गुप्ता ‘गुंजन’


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पथिक..

ये देखकर आश्चर्यचकित था, कि

सत्य की ओर ले जाने वाले मार्ग पर

परत दर परत मातम ही पसरा था...

‘ओह!’, वह बोला;

‘सदियाँ हुईं यहाँ से कोई नहीं गुजरा’..

किन्तु जब उसने प्रत्येक परत में एक धारदार चाकू पाया

‘कोई बात नहीं’, अन्त में वह फ़ुसफ़ुसाया;

‘नि:सन्देह कुछ अन्य रास्ते अवश्य होंगे’...



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25 जनवरी 2016

‘यदि’ .. (रूडयार्ड किपलिंग)







‘यदि’ : रूडयार्ड किपलिंग
अनुवाद : डॉ. गायत्री गुप्ता ‘गुंजन’



यदि तुम उस समय भी धैर्य रख सको, जब तुम्हारे आसपास, लोग अपनी असफ़लताओं का दोष तुम पर मढ़ें;
यदि तुम उस समय भी खुद पर विश्वास रख सको, जब सब तुम्हें सन्देह की नज़रों से देखें,
साथ ही, उनके सन्देह को भी जगह दो;
यदि तुम प्रतीक्षा कर सको और ऐसा करते हुये थकान भी महसूस ना करो;
या, झूठ का सामना करते हुये भी, झूठ के पास ना फ़टको;
या फ़िर घृणा से घिरे रह कर भी, उसको आत्मसात ना करो;
और इतना होने के बावज़ूद भी, अपनी अच्छाई और बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन ना करो...


यदि तुम स्वप्न देख सको – किन्तु उसमें खोने से खुद को बचाये रखो;
यदि तुम विचारशील बन सको – किन्तु विचारों को खुद पर हावी ना होने दो;
यदि तुम विजय और विनाश में समान भाव रख सको;
यदि तुम अपनी उन बातों को भी बर्दास्त करने की क्षमता रख सको, जो
धूर्त लोगों द्वारा मूर्खों को फ़ँसाने के लिए तोड़-मरोड़ कर पेश की जाएँ;
या अपनी ज़िन्दगी से जुड़ी चीजों को बिखरा देखकर, निराशा के बावजूद
अपने टूटे-फ़ूटे औजारों से पुनर्निर्माण का हौसला रख सको...


यदि तुम अपनी सारी प्राप्तियों को एक साथ ही दाँव पर लगा सको
और हारने पर दोबारा फ़िर से शुरू कर सको,
फ़िर भी कभी मुँह से एक शब्द ना कहो;
जब अपनी बारी की प्रतीक्षा करते-२
तुममें सिर्फ़ अपनी इच्छाशक्ति के अलावा और कुछ शेष ना रह जाये
उस समय तुम अपने दिल को माँसपेशियों और तन्तुओं सहित
अपने हिस्से का काम करने के लिए उत्साहित कर सको...


यदि तुम भीड़ में भी अपनी पहचान बरकरार रख सको;
या राजा के साथ के बावजूद – अपनी जड़ें ना भूलो;
यदि ना तो कोई शत्रु और ना ही कोई मित्र तुम्हें सताने की क्षमता रख सके;
यदि तुम सबके साथ समानता का व्यवहार रख सको;
यदि तुम ना भुलाये जा सकने वाले एक मिनट को बेहतरीन ६० सेकण्ड की दौड़ से भर सको;
तो ये धरती और इसकी सारी सम्पदा, तुम्हारी होगी;
और – इससे भी बढ़कर – तुम एक इन्सान कहलाओगे, मेरे बच्चे!


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15 जनवरी 2016

मैं फ़िर भी बढ़ूँगी.. (माया एंजेलो)





   मैं फ़िर भी बढ़ूँगी : माया एंजेलो
(अनुवाद : डॉ. गायत्री गुप्ता ‘गुंजन’)


भले तुम इतिहास बना दो मुझको
अपने कड़वे और सफ़ेदपोश झूठ से
जमीन पर गिराकर धूल होने तक
लेकिन फ़िर भी, धूल होकर भी
मैं आगे बढ़ूँगी..


क्या मेरी मुखरता सताती है तुम्हें?
या घिर आये अँधेरों से भी डर लगता है?
क्योंकि लहरा के मैं चलती हूँ कुछ इस तरह
जैसे मचलता हो समन्दर हसीन तेलों का

चाँद-सूरज की तरह, आस (विश्वास) की लहरों की तरह
ज्वार-भाटा की तरह, गिर-२ के भी, उठने के लिए
मैं आगे बढ़ूँगी..


आओ आगे बढ़ो, मुझे तोड़ने के लिए
सिर झुकाने के लिए, पलकें गिराने के लिए
मेरे कन्धों को झुकाओगे तुम आँसू देकर
भले खुश हो लो, मेरी दु:ख भरी चीखें लेकर

पर देखना उस वक्त तुम डर जाओगे
जब मेरे दर्प से चेहरा मेरा खिल जायेगा
सुन्न हो जायेंगे, इन कानों के पर्दे भी तब
जब हँसी गूँजेगी, सिक्कों की खनक से बढ़कर

बींध दो चाहे मुझे शब्दों से अन्तस तक
भले उतार दो कटार अपनी आँखों से
भले उड़ा दो मुझे नफ़रतों की आँधी में
लेकिन हवा होकर भी, खुद को सँभाले
मैं आगे बढ़ूँगी..


क्यों परेशान हो इस तरह मेरे यौवन से?
कि पलकें उठ के तेरी फ़िर से गिर नहीं पायें
मैं तो नाचूँगी अपने हाथों में उठा के गगन
कि जैसे हीरे जड़ा जिस्म लिए इठलाती पवन

शर्म-ओ-हया के खंडहर गिरा के
मैं आगे बढ़ूँगी..

जड़ों में बसे दर्द को झुठलाकर
मैं आगे बढ़ूँगी..


मैं एक लहराता, उछलता सुर्ख समन्दर हूँ
जिसके किनारों ने बन्धन तोड़ दिये हैं सारे
अब दु:ख और डरावनी रातों को भूलकर
मैं आगे बढ़ूँगी..

दिन के उस एक क्षण में
जब दूर-२ तक उजाला होगा
मैं आगे बढ़ूँगी..


चूँकि , मैं अपने पूर्वजों का भेजा हुआ उपहार हूँ
मैं गिरे हुए लोगों का स्वप्न और आशा हूँ

इसीलिए..

मैं बढ़ती हूँ..

आगे बढ़ती हूँ..

और बढ़ती ही जाती हूँ..!


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