24 सितंबर 2012

अपंगता.....किसकी है ये पहचान !



अपाहिज,
अयोग्य,
असमर्थ,
लाचार,
किसकी है ये पहचान ?
वो जो देख नहीं पाते
या जो सब कुछ देख-सुन कर भी
किंकर्तव्यविमूढ़ रह जाते हैं...

चलने से लाचार कौन ?
वो जो खुद को बैसाखियों के सहारे
बमुश्किल आगे बढ़ा पाते हैं,
या जो खुद आगे निकलने की गरज़ में
दूसरों को गिरा कर
अपनी मंज़िल को दौड़ जाते हैं...

बोल-सुन ना पाना
मज़बूरी है उनकी
पर जो देख-सुन कर भी
बोल ना पायें
क्या संज्ञा है उनकी ?

कभी-२ विचार आता है मन में
झकझोर जाता है भीतर तक
विधाता से मानव का,
सम्पूर्ण तन पाकर भी
क्या मानव होने का फ़र्ज़
सम्पूर्णता से निभा पाए हम ?
या दूसरों की कमजोरियों पर
हंसना ही सीखा है हमने
अपनी कमजोरियों को छुपाने के लिए...

मानवीय अपंगता की
साक्षात् प्रतिमूर्ति
बन कर रह गए हैं हम
अपाहिज, अयोग्य, असमर्थ, लाचार
शायद यही है पहचान हमारी.....!!

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19 सितंबर 2012

कविता के भंवर में...!



आज सुबह जब हम
बालकनी के कोने में
कुर्सी पर बैठे हुए
सोच में निमग्न थे,
तभी देखा
कुछ शब्द
कतारबद्ध चले जा रहे थे
उनमें से कुछ के
कान उमेंठ कर उठाया
लय में उन्हें बांधा
भावों की चाशनी में लपेट कर
हम कविता का निर्माण
करने ही जा रहे थे
कि उनमें से एक ने
चाशनी की परत उठाकर
अपना मुंह बाहर निकाला
और तेज स्वर में हमें लताड़ा
क्यों हम पर
इतना जुल्म करते हो
हमारे माध्यम से
अपने जज्बातों को बयां करते हो
क्यों नहीं है हिम्मत
दुनियां के सामने आने की
दिल में छुपा के रखा है जो राज
वो सबको बताने की
यूँ कब तक घुट-२ कर जीते रहोगे ?
अपने आंसुओं का कहर
हम पर ढाते रहोगे ?
हमने कुछ देर सोचा
फिर से कुछ भावों की चाशनी बनायी
एक परत शब्दों पर और चढ़ाई
सुन्दर सी कविता निखर आई
और हमने भी
ली एक आह संतोष के साथ
कि नहीं देख पाया कोई
दिल में चुभे हुए नश्तर
जिन से रिस रहा है खून
शब्दों के रूप में
भावों की चाशनी ओढ़े हुए.....!!

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12 सितंबर 2012

भरोसे के एहसासात...!



तुमने
दिल की ज़मीं पर
रोप तो दिया पौधा
प्यार का...
पर
दिया नहीं
खाद समय का...
सींचा नहीं
स्नेह के जल से...
समाधान नहीं खोजा
जगह-२ उग आये
प्रश्न रुपी
खरपतवार का...
फिर
कैसे तुम्हें
इत्मीनान है कि
उगेंगे
भरोसे के एहसासात
सुकून की डाली पर.....!!

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5 सितंबर 2012

इन्तज़ार..........एक आहट का !



इन्तज़ार है मुझे
उस आहट का
जो होगी तेरे क़दमों की
लड़खड़ाते हुए बढ़ेंगे जो मेरी ओर
और मैं थाम लूँगी तुझे
गिरने के डर से...

देखती रहती हूँ तुझे
लेटे हुए उस पालने में
और सोचती हूँ कि
कब होगी तू आज़ाद
देखेगी ये सपनीली दुनिया
अपनी बड़ी-२ आँखों से...

देखकर तुझे
दिल में उठता है समंदर
दुखों का
पर बांध लेती हूँ उसे
अपनी जिजीविषा से
ताकि लड़ सकूँ मैं
'तेरे' दुखों से...

मैंने तो मांगी थी
ईश्वर से
सिर्फ एक
प्यारी सी गुड़िया
ताकि लुटा सकूँ, उस पर
अपना सम्पूर्ण प्यार, दुलार
पर था शक उसे शायद
मेरे प्यार पर
और लेनी चाही उसने
मेरी परीक्षा
बेटी तो दी उसने, परी सी
पर कर दी उसकी दुनिया सीमित
एक झूले तक
और मेरी
उस झूले के इर्द-गिर्द...

पर नहीं था एहसास शायद
ईश्वर को भी
प्यार की ताकत का...
मैं खुश हूँ, पाकर
अपनी दुनिया
झूले के इर्द-गिर्द ही
इस इन्तज़ार के साथ
कि कर पायेगी आज़ाद
मेरे प्यार की ताकत
तुझे इस झूले से आज़ाद
और मैं सुन पाऊँगी
वो आहट
जो होगी तेरे क़दमों की.....!!

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