6 दिसंबर 2012

‘मैं’ से ‘स्व’ की ओर...!







‘मैं’

कहने को तो,

पहचान बताता है इसे

हर कोई अपनी...

पर

क्या नहीं होता?

‘अहम’ का द्योतक

ये हमारे...

वास्तविक पहचान निखरती है

जब हम

डुबो देते हैं

इस ‘मैं’ को

आत्म-मंथन के

भंवर में...

और प्रकट होता है

हमारा ‘स्व’

श्वेत, धवल, पावन

स्वच्छ, निर्मलता से ओत-प्रोत

विलीन होने को आतुर

उस परम-तत्व में

जो वास्तविक पहचान है

हमारे ‘स्व’ की.....!!

       
         x  x  x  x 

29 नवंबर 2012

एक सवाल...!






एक सवाल

जिसका ज़वाब

ना वो देना चाहते हैं

ना हम सुनना चाहते हैं

क्योंकि वो जानते हैं कि

वो कभी सच नहीं बोल पायेंगे

और हम जानते हैं कि

उनके झूँठ पर भी कर लेंगे यकीन हम

और फ़िर

ना हम जी पायेंगे

और ना ही

वो सुकून से रह पायेंगे

इसलिए

अपने-२ दिलों की बेहतरी के लिये

हमने सुला दिया

अपने जज्बातों को

किसी गहरी कब्र के

सुकूँ भरे आगोश में

जो महक रहे हैं

एक-दूसरे की खुशबुओं से

होकर सराबोर

और कर रहे हैं इन्तज़ार

बेहतर वक्त का

ताकि छू सकें

एक-दूसरे की रुहों को

और जी लें

एक कतरा ज़िन्दगी.....!!

         
         x  x  x  x 

19 नवंबर 2012

अभेद्य दीवार...!







थाली में

बचे हुये दाल-भात को

उँगली से चाटना

नहीं आता जिनकी

तहज़ीब के दायरे में

क्या समझेंगे वो

भूख से बिलबिलाते हुये

बच्चे की संवेदना को...


पोशीदा कर रखा है

जिन्होंने

अपने दिल को

रत्न-जडित सोने के पर्दे के भीतर

क्या देखेंगे वो

फ़टे पर्दे के भीतर से झाँकती

नारी की लज्जा को...


खिंच गई है एक दीवार

इन्सान-२ के बीच

जैसे हों अमीर इंसान और गरीब इंसान

जिसे भेद नहीं पाती संवेदना

और नहीं जा पाता आर्द्र स्वर

इस पार से उस पार

क्योंकि इस दीवार को बनाया गया है

मानव सभ्यता के द्वारा

प्रगतिशीलता के गारे से

संस्कृति की ईंटों को चिन-२ कर.....!!

          x  x  x  x 

6 नवंबर 2012

अहसासों की ज़मीं पर...







कभी-२

बैठे रहो

कैनवास के सामने

लगातार

पर नहीं बनता अक्स...

ज़िन्दगी की तरह,

केवल रेखाएँ ही बनती हैं

आडी-टेढी.....


कभी-२

कितना भी सँवारो

घँरौदे को

पर नहीं बनता

खूबसूरत...

ज़िन्दगी की तरह,

बार-२ ढह जाता है

समुन्दर के किनारे.....


कभी-२

कितना भी समझाओ

मन को

प्यार से

पर नहीं सुलझती गिरहें...

ज़िन्दगी की तरह,

लगातार उलझती ही जाती है

एक के बाद एक गाँठ.....


क्यों नहीं होती?

निश्छल, निश्पाप, खिलखिलाती

ज़िन्दगी

मासूम बच्चे की तरह

जहाँ हमेशा प्यार खिले

अहसासों की ज़मीं पर.....!!


        x  x  x  x  x

23 अक्तूबर 2012

मन की सिहरन...




                                                                                 


कुछ बूँदें बारिश की

बरस रही हैं आँगन में

मन में भी कुछ

गीलापन सा महसूस हो रहा है...


कुछ भीग गया है शायद

यादों के कुछ कपडे+ हैं

तह करके रखे थे

दिल के किसी कोने में...


अब इन्तज़ार ही कर सकती हूँ

कहीं से आये एक लिफ़ाफ़े का

जो होगा मेरे नाम का

पर पता नहीं होगा उस पर...


शायद कुछ धूप मिल जाये उसमें

लफ़्ज़ों में लिपटी हुई

जो हौले से सहला जाये

मन के गीलेपन को...


    x  x  x